भटक रहा हूँ मैं तबसे
जबसे होश संभाला है,
आत्मा तो बसती है मेरे भीतर
पर ख़ुद से मैं अनजान हूँ।
मैं क्या हूँ?
मैं कौन हूँ?
इसकी मुझे खबर नहीं।
चारों दिशाएँ चीख-चीख कर कहती हैं,
खोज अपने आप को खोज।
मगर मैं, लाचार, बेबस,
आँखें फ़ाड़-फ़ाड़ तकता हूँ,
इस आइनों के जंगल को।
मैं विधाता नहीं
की तीसरे नेत्र से देखूँ,
या धरती की तह तक पहुँचू,
मगर मैं, यह जान गया हूँ
की ख़ुद को पाने के लिए
मुझे संघर्ष करना पड़ेगा।
अपने आप को जानना है तो
संघर्षहीन से मुझे,
संघर्षशील बनना पड़ेगा।