ये कैसा तिलिस्म है!
कि हुजूम में चलते हुए
जब तुम्हारा नक्श ज़हन में
उभरता है तो मैं,
और ही तरह का हो जाता हूँ I
यूँ लगने लगता है जैसे
मेरा क़द दराज़ हो गया है
और मैं,
अर्श को छूने के लिए बढ़ा जा रहा हूँ I
कहीं यह ख़ुद-फ़रेबी तो नहीं?
तुम्हारी तस्वीर ज़हन में आते ही
ऐसा क्यों लगता है कि मैं,
अपने से भी बुलंद हूँ,
बाक़ियों से भी?
क्यों लगने लगता है कि रीफ़अतें
मेरे क़दमों से लिपटी हैं?
कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारा
ख्याल आते ही
तुम मेरे अन्दर समा जाते हो
और हम दोनों मिलकर 'मैं'
हो जाते हैं?
बुलन्द,
और भी बुलन्द?
No comments:
Post a Comment