Thursday, February 4, 2010

बँटवारा

न जाने क्यों हमने अपने को

लकीरे खींचकर जुदा कर लिया

न जाने क्यों जात पात का

जाल अपने गिर्द बुन लिया

हम सब का खून भी लाल है

और पसीना भी खरा पानी ,

फिर भी रहते हैं जुदा

कहते हैं अपने को हिन्दुस्तानी पाकिस्तानी,

अज़ान यहाँ भी होती है

आरती वहां भी

फिर भी दामन छुड़ाए बैठे हैं,

हिंदू भी मुसलमान भी

रात का अंधकार भी वही है

सूरज का तेज भी

पर फिर भी रहते हैं जुदा

हम नासमझ हर घड़ी

न खुशीआं बाँटते हैं

न ग़म

पर खुदा को बाँट रखा है हमने

यहाँ भी और वहां भी।

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